राजद के सांसद मनोज झा ने 6 जुलाई 2025 को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। उन्होंने चुनाव आयोग (ECI) पर आरोप लगाया कि बिहार में चल रही “Special Intensive Revision” (SIR) प्रक्रिया के जरिए लाखों मतदाताओं का मत देने का अधिकार छीनने की तैयारी है।
चुनाव आयोग की प्रक्रिया: रणनीति या उत्पीड़न?
झा का कहना है कि बिहार मतदाता अधिकार को लक्षित कर यह प्रक्रिया बिना किसी राजनीतिक दल से परामर्श के “जल्दबाज़ी और गलत समय पर” आरंभ की गई है। उन्होंने इसे “संस्थागत रूप से मताधिकार का हरण” बताया और सवाल उठाया—इतने मायने रखती प्रक्रियाएँ तो विधानसभा चुनावों से पहले क्यों? जब छ॰ महीनों में ही चुनाव होने हैं।
“यह योजनाबद्ध बहिष्कार है, संयोग नहीं।” — मनोज झा
फिलहाल, बिहार का वर्तमान मतदाता मतदान सूची में 7.9 करोड़ संख्या बताई जा रही है। इसमें 4.74 करोड़ से अधिक लोगों को अपनी नागरिकता, जन्म-स्थान व तिथि से प्रमाणित करना होगा।
कौन-कौन प्रभावित होंगे: गरीब, दलित, मुसलमान -बिहार मतदाता अधिकार
ज्हा ने वर्गीय और धार्मिक आधारों पर इस प्रक्रिया को “पारदर्शी भ्रम” बताया। उनका कहना है कि SIR से गरीब, दलित, व मुस्लिम समुदाय के • वोटरों की पहचान को चुनौती दी जा रही है।
इन समुदायों के पास निम्नलिखित प्रमाण-पत्र कम मात्रा में हैं:
- सरकारी नौकरी या वेतनभोगी पहचान-पत्र – केवल 20.49 लाख बिहारवासी सरकारी रंग हासिल हैं।
- 1 जुलाई 1987 तक जारी पहचान-पत्र – ऐसे दस्तावेज़ दुर्लभ।
- जन्म प्रमाण-पत्र – 2007 में मात्र 7.13 लाख पंजीकरण, वास्तविक जनसंख्या के चौथाई से भी कम।
- पासपोर्ट – बिहार में केवल 2.4 % आबाद पासपोर्टधारी।
- मैट्रिक या शैक्षिक प्रमाण-पत्र – 18‑40 आयु समूह में लगभग 45‑50 % लोग है, पर पंजीकरण सीमित।
- स्थायी निवासी प्रमाण-पत्र – बहुत कम लोगों के पास।
- वन अधिकार प्रमाण-पत्र – बिहार में आदिवासी आबादी मात्र 1.3%।
इनमें व्यापक रूप से गरीब या वंचित लोग अयोग्य साबित होंगे।
आधारकार्ड को नकारा: क्या न्याय है? – बिहार मतदाता अधिकार
चुनाव आयोग द्वारा आधार, एमएनरेगा जॉब कार्ड और राशन कार्ड को अस्वीकार करना झा के अनुसार “स्पष्ट पक्षपात और मनमाना” कदम है।
बिहार की साक्ष्य बताते हैं कि यहां 9 में से 10 लोग आधार धारक हैं।
“आपके पास सिर्फ आधार है…बाकी प्रमाण कहाँ से लाएं?” – एक भारतीय एक्सप्रेस रिपोर्ट में ग्रामीणों के सवाल प्रदान किए गए।
इससे स्पष्ट है कि अस्वीकार की यह नीति विषमता को बढ़ावा दे रही है।
संसद सदस्य ने उठाए कानूनी तर्क : बिहार मतदाता अधिकार
झा ने सुप्रीम कोर्ट में यह भी तर्क दिया कि न्यायपालिका ने सिद्ध किया है कि नागरिकता प्रमाणित करने का जिम्मा राज्य का है, ना कि नागरिक का। SIR प्रक्रिया में जिनके पास पर्याप्त दस्तावेज़ नहीं, वह मत देने का अधिकार खो देंगे।
इस रणनीति को विधान सभा चुनावों के संदर्भ में “दबाव और भय पैदा करनेवाली” संज्ञा दी जा रही है।
विपक्ष और एनजीओ भी सतर्क : बिहार मतदाता अधिकार
PUCL (पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़) जैसी संस्थाएँ भी EC के SIR को चुनौती दे रही हैं।
सरकार और राज्य विधान पर चुनाव आयोग की यह कार्रवाई लोकतांत्रिक मूल्यों को कमज़ोर कर रही है।
बिहार मतदाता अधिकार के लिए सुप्रीम कोर्ट में आगे क्या हो सकता है?
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष झा की याचिका में मुख्य अनुरोध यह है:
- SIR प्रक्रिया रोकना या स्थगित करना।
- आधार को वैध वोट पहचान के विकल्प के रूप में स्वीकार करना।
न्यायिक फैसला राज्य के स्वतंत्र और स्वच्छ चुनावों, मताधिकार के हित और संवैधानिक संरचनाओं के लिए मील का पत्थर साबित हो सकता है।
डिजिटल मीडिया में वृहद चर्चा
यह मुद्दा ट्विटर और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्मों पर भी तेज़ी से उछला है।
निष्कर्ष: लोकतंत्र की जड़ें मजबूत या कमजोर?
RJD सांसद मनोज झा द्वारा याचिका के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट में उठाया गया बिहार मतदाता अधिकार का मुद्दा हमारे लोकतंत्र की आत्मा पर सवाल खड़ा करता है।
- क्या SIR प्रक्रिया निष्पक्ष है?
- क्या गरीब और वंचित वर्गों को न्याय मिल रहा है?
- क्या चुनाव आयोग को चुनाव से पहले आधार समेत अन्य पहचान-पत्र स्वीकार करने चाहिए?
इनका उत्तर लोकतंत्र की दिशा निर्धारण करेगा।
- Election Commission of India की आधिकारिक धारणाएं यहाँ देख सकते हैं:
eci.gov.in - यौलॉग: भारत में मतदान प्रक्रिया और जमीनी रियलिटी को समझने का एक विश्लेषण:
The Indian Express – Voter Verification Drive - राष्ट्रीय समाचार

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